Sunday, July 29, 2018

पूछिये।।

कभी टूटती नहीं हैं सोच और ख्यालों की बंदिशें।।
और बांध के रख नहीं सकते चाहे जंजीरों से पूछिए।।

घर से निकल आये हो तोह कट ही जायेगा सफर।।
लेकिन कितनी मुश्किल थी डगर राहगीरों से पूछिए।।

यूं ही बेवजह के हैं दुनिया में भेदभाव,,
लहू सबका एक सा है चाहे शमशीरों से पूछिए।।

पाने की हो चाह तोह कुछ भी नहीं है मुश्किल।।
कैसे पा लेता है कोई खुदा ये फकीरों से पूछिए।।

मेहनतें तोह अक्सर रंग ला ही जाती हैं।।
कितनों ने पाया है मुक़दरों से बढ़ के ये तकदीरों से पूछिए।।

तेरी दुनिया में या रब सब बनते हैं फरिश्ते।।
कौन कितना है गुनहगार मुखबिरों से पूछिए।।

सब बदलता है वक़्त के बदलने से।।
तुम बदले हो कितना ये पुरानी तस्वीरों से पूछिए।।

मरने पर तोह मिलेगी बस दो गज ही जमीन।।
साथ लेकर कौन गया है चाहे जागीरों से पूछिए।।

Thursday, May 18, 2017

बता इस से बढ़कर चाहूं तोह क्या।।

फूलों की महक,
पंछियों की चहक।।
घने घने जाड़,
ऊंचे ऊंचे पहाड़।।
बादलों की गड़गड़ाहट,
बहते झरनों की आहट।।
खुला आसमान और हाथों में जाम।।
बता इस से बढ़कर कोई चाहेगा क्या।।

महबूबा का हाथों में हाथ।।
वोह हल्की बरसात।।
नज़रों का मिलना,,
चहरों का खिलना।।
गुमसुम सा शहर,,
और वोह महोबत की बात।।
बता इस से बढ़कर कोई चाहे तोह क्या।।

दोस्तों से मुलाकातें, वोह काली घनी रातें।।
खुशदिल समा, वोह महफ़िल जवां।।
स्वादिष्ट सा खाना,, वोह गाना बजाना।।
शायरों का मिलना,, वोह शब्दों का भिड़ना।।
इश्क के जज्वात और वोह पहली मुलाकात।।
बता इस से बढ़कर कोई चाहे तोह क्या।।

माँ के हाथ का खाना,, गांव की गलियों में गुनगुनाना।।
मक्की की रोटी,, वोह लस्सी का गिलास।।
माँ का दुलार,, वोह प्यार का एहसास।।
रेहड़ू, कड़ु, पलदे का स्वाद,, और ताज़े गुड़ की मिठास।।
बता इस से बढ़कर कोई चाहे भी तोह क्या।।

Monday, May 1, 2017

बस यही सोचता हूँ।।

बर्षों पहले हुआ था अंग्रेजों से आज़ाद देश हमारा।
मज़हबों और जातियों से कब आज़ाद होगा बस यही सोचता हूँ।

बाहर के दुश्मनों से लड़ना हमको आता है।
अपने कब छोड़ेंगे बार करना यही सोचता हूँ।

लड़ लेंगे मिलकर आतंकवाद से हम।
लेकिन ये नेता कब छोड़ेंगे गरीब को मारना यही सोचता हूँ।

ऐसा नहीँ सभी ईमानदार हों मेरे देश में।
लेकिन सभी कब छोड़ेंगे भ्रष्टाचार करना यही सोचता हूँ।

मौत ने तोह इक दिन सबको अपनाना ही है।
ज़िन्दगी कब करेगी अदब से ब्यबहार यही सोचता हूँ।

कब तक लिखता रहूंगा मैं यूँ ही बेवजह।
कब करेगा लिखा काम मेरा बस यही सोचता हूँ।

Sunday, April 9, 2017

क्या लिखूं

कभी सोचता हूँ ये लिखूं कभी सोचता हूँ वोह लिखूं।।
पढ़कर थोड़ा तुम भी सोचो आखिर में मैं जो लिखूं।।

तुम महबूबा के होंठों के रंगों को लिखना।।
मैं बच्चों में खिलखिलाती उमंगों को लिखूं।।

कभी सोचता हूँ टपकती हुयी वोह झोंपड़ी को लिखूं।।
या आसमान को निहारते उस किसान की उम्मीदों को लिखूं।।

जो खुशहाली की तरफ ले जाए ऐसी कोई राह लिखूं।।
या अपनों से मिलने की एक सैनिक की चाह लिखूं।।

धर्मों जातियों के नाम पर बांटने वाली कुरीतों को लिखूं।।
या त्योहारों में बंटने वाली हर्षोउल्लास की रीतों को लिखूं।।

कभी सूखे में लिपटे उस बच्चे की प्यास को लिखूं।।
या बाढ़ में डूबते अपने घर को देखने का एहसास लिखूं।।

दहेज की खातिर अपनी बेटी को ना व्याह पाया जो उस गरीब की घुटन को लिखूं।।
या फुटपाथ पर कांपते हुए उस बेबस के लिए तपन लिखूं।।

दीमक बनकर देश को लूटती सरकार को लिखूं।।
किसी ईमानदार के गले का फंदा बने भ्र्ष्टाचार को लिखूं।।

शायर 3

मैं अपने गमों को छिपाकर मुस्कुराता हूँ।।
बहल जाए कोई रूह इसलिए गुनगुनाता हूँ।।
हकीकत हालातों की मेरी आँखें बयान करती हैं।।
ये आंसू छलक ना जाए तोह चहरे को छिपाता हूँ।।

खुद को हर रोज पीसता हूँ वक़्त की चक्की में।।
बस अपने ख्यालों को महीन करने के लिए।।

अकसर रुक जाता हूँ इन सरहदों को देखकर।।
परिन्दों की तरह बेख़ौफ़ उड़ना हमको नहीँ आया।।

आँखों से पढ़लो दिल की गहराईयों के राज।।
मेरी कलम अकसर हकीकत बयाँ नहीँ करती।।

अच्छी तरह से वाकिफ हूँ मैं कलम के हुनर से।।
मेरे दर्दों पर अकसर वाह वाह करते हैं लोग।।

कुछ फीका पड़ गया है मेरी कलम का वजूद।।
अब पहले के जैसे खयालात नहीँ आते।।

असल मंज़िल तोह आखिर मौत ही है।।
ना जाने क्यों बेहक जाता हूँ ज़िन्दगी हर बार देख कर तुझको।।

किसान

वोह बारिशों की दुआएं।।
वोह धूप में कड़ी मेहनत।।
वोह जाग के काटी रातें।।
वोह छत से टपकती बरसातें।।
फिर भी खुदा के रंगों में रंग जाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह सूखे का खौफ।।
वोह कोहरे की मार।।
वोह बाढ़ के आने का डर।।
सब सहकर भी पसीना बहाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह पैसे के लाले।।
वोह मंडी की लंबी लाइने।।
वोह मोल ना मिलने का दर्द।।
फिर भी घर की जरूरतों के लिए खुद को भूल जाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह उजड़े हुए खेत।।
वोह सूखी उड़ती रेत।।
दिनों में ही हरे भरे से वीरान हो जाना।।
जो किस्मतों में था मिल गया ये खुद को समझाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह बैंकों की किश्तें।।
मुश्किलों में टूटते रिश्ते।।
मझबूरियों में सबकुछ यूँ ही छोड़ के मर जाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

शायर 2

इतने ना नज़र आएंगे तुमको मेरे ये ऐब।।
कभी खुद की बातों को भी तोड़ मरोड़कर तोह देखो।।

खत्म हो जाएं दुनिया की तमाम ये नफ़रतें।।
कभी खुदको अच्छाई की तरफ मोड़कर तोह देखो।।

एक निबाला भी व्यर्थ ना फेंकोगे तुम यूँ।।
कभी खुदको उस किसान की तरह तोड़कर तोह देखो।।

गरीबी का एहसास हो ही जाएगा।।
एक वक़्त के खाने लिए कभी दूसरों के सामने हाथ जोड़कर तोह देखो।।

खूब भायेगी फिर तुमको मखमलों की नींद।।
कभी एक रात फुटपाथ पर ठंड की चादर ओढ़ कर तोह देखो।।

भूल जाओगे एक पैसा भी बेइमानी का लेना।।
कभी अपने अंदर के इंसान को जखजोड़कर तोह देखो।।

अच्छे बुरे का एहसास खुद ही होने लगेगा।।
कभी नोटों और वोटों की राजनीती छोड़कर तोह देखो।।

एक दिन भारत समृद्ध हो ही जायेगा।।
तुम भी ईमानदारी की राह पर दौड़कर तोह देखो।।