ये
तनहाई का मौसम कंबखत गुज़रता ही नहीं,
एक
ज़माना हो ज्ञ मुझे नयी रुत का इंतज़ार करते करते.
2.
तन्हा
जीना तो आता है मुझको।
पर कंबखत तेरी याद है के जीने नहीं देती।
पर कंबखत तेरी याद है के जीने नहीं देती।
3.
क्या
फरमाइश करनी उस खुदा से बार बार ‘शेखर’,
कंबखत मिलेगा तो वो ही जो तेरे मुक़द्दर में होगा।
कंबखत मिलेगा तो वो ही जो तेरे मुक़द्दर में होगा।
4.
तन्हा
ही हूँ मैं इस सफर ए ज़िंदगी में ए दोस्त,
कंबखत तू भी मेरे साथ हो चल कुछ पल ही सही।
कंबखत तू भी मेरे साथ हो चल कुछ पल ही सही।
5.
मरने
के बाद कदर होती है ‘शेखर’,
ज़िंदा तो साई बाबा भी अक्सर भूखे ही रहते थे।
ज़िंदा तो साई बाबा भी अक्सर भूखे ही रहते थे।
6.
सफर-ए-ज़िंदगी
में इतनी सी चाह है ऐ दोस्त,
कोई रोये न मेरी वजह से मेरे जीते जी,
और कोई हँसे न मुझ पर मेरे जाने के बाद।
कोई रोये न मेरी वजह से मेरे जीते जी,
और कोई हँसे न मुझ पर मेरे जाने के बाद।
7.
सूखे
पत्तों सी हो गयी है ये ज़िंदगी मेरी,
कंबखत जिस और की हवा चले, उसी और चल देता हूँ।
कंबखत जिस और की हवा चले, उसी और चल देता हूँ।
8.
ज़िंदगी
में जितनी भी दिल-लगी करनी है कर ले ‘शेखर’,
पर कभी कोई ऐसा काम न करना कि खुद ही की नज़रों में गिर जाओ।
पर कभी कोई ऐसा काम न करना कि खुद ही की नज़रों में गिर जाओ।
9.
तेरे
बिना बड़ी बेरंग सी हो गयी है ये दुनिया मेरी,
तू एक बार फिर रंग भर दे मेरी ज़िंदगी में आकर।
तू एक बार फिर रंग भर दे मेरी ज़िंदगी में आकर।
10. मैं ही पागल था जो उसको अपना समझ बैठा,
वो तो कंबखत खावों में भी गैरों का निकला।
वो तो कंबखत खावों में भी गैरों का निकला।
11. मैं तो सिरफ लफ़ज लिखा करता हूँ,
तेरी चाहत उसे गज़ल बना देती है।
तेरी चाहत उसे गज़ल बना देती है।
12. यूं ही चंद लफ़ज लिख कर हम खुद को शायर समझ बैठे थे,
जो महफिल में बैठ कर दर्द-ए-दिल दुनिया का सुना तो खुद से ही शरमा गए।
जो महफिल में बैठ कर दर्द-ए-दिल दुनिया का सुना तो खुद से ही शरमा गए।
13. कंबखत ज़िंदगी ने कुछ ऐसे ज़ख़म दिये हैं,
कि दाग तो भर गए पर दर्द अब भी बाकी है।
कि दाग तो भर गए पर दर्द अब भी बाकी है।
14. हालात मजबूर करते हैं ‘शेखर’,
बरना कौन कंबखत बुरे काम करना चाहता है।
बरना कौन कंबखत बुरे काम करना चाहता है।