कभी सोचता हूँ ये लिखूं कभी सोचता हूँ वोह लिखूं।।
पढ़कर थोड़ा तुम भी सोचो आखिर में मैं जो लिखूं।।
तुम महबूबा के होंठों के रंगों को लिखना।।
मैं बच्चों में खिलखिलाती उमंगों को लिखूं।।
कभी सोचता हूँ टपकती हुयी वोह झोंपड़ी को लिखूं।।
या आसमान को निहारते उस किसान की उम्मीदों को लिखूं।।
जो खुशहाली की तरफ ले जाए ऐसी कोई राह लिखूं।।
या अपनों से मिलने की एक सैनिक की चाह लिखूं।।
धर्मों जातियों के नाम पर बांटने वाली कुरीतों को लिखूं।।
या त्योहारों में बंटने वाली हर्षोउल्लास की रीतों को लिखूं।।
कभी सूखे में लिपटे उस बच्चे की प्यास को लिखूं।।
या बाढ़ में डूबते अपने घर को देखने का एहसास लिखूं।।
दहेज की खातिर अपनी बेटी को ना व्याह पाया जो उस गरीब की घुटन को लिखूं।।
या फुटपाथ पर कांपते हुए उस बेबस के लिए तपन लिखूं।।
दीमक बनकर देश को लूटती सरकार को लिखूं।।
किसी ईमानदार के गले का फंदा बने भ्र्ष्टाचार को लिखूं।।