Sunday, April 9, 2017

क्या लिखूं

कभी सोचता हूँ ये लिखूं कभी सोचता हूँ वोह लिखूं।।
पढ़कर थोड़ा तुम भी सोचो आखिर में मैं जो लिखूं।।

तुम महबूबा के होंठों के रंगों को लिखना।।
मैं बच्चों में खिलखिलाती उमंगों को लिखूं।।

कभी सोचता हूँ टपकती हुयी वोह झोंपड़ी को लिखूं।।
या आसमान को निहारते उस किसान की उम्मीदों को लिखूं।।

जो खुशहाली की तरफ ले जाए ऐसी कोई राह लिखूं।।
या अपनों से मिलने की एक सैनिक की चाह लिखूं।।

धर्मों जातियों के नाम पर बांटने वाली कुरीतों को लिखूं।।
या त्योहारों में बंटने वाली हर्षोउल्लास की रीतों को लिखूं।।

कभी सूखे में लिपटे उस बच्चे की प्यास को लिखूं।।
या बाढ़ में डूबते अपने घर को देखने का एहसास लिखूं।।

दहेज की खातिर अपनी बेटी को ना व्याह पाया जो उस गरीब की घुटन को लिखूं।।
या फुटपाथ पर कांपते हुए उस बेबस के लिए तपन लिखूं।।

दीमक बनकर देश को लूटती सरकार को लिखूं।।
किसी ईमानदार के गले का फंदा बने भ्र्ष्टाचार को लिखूं।।

शायर 3

मैं अपने गमों को छिपाकर मुस्कुराता हूँ।।
बहल जाए कोई रूह इसलिए गुनगुनाता हूँ।।
हकीकत हालातों की मेरी आँखें बयान करती हैं।।
ये आंसू छलक ना जाए तोह चहरे को छिपाता हूँ।।

खुद को हर रोज पीसता हूँ वक़्त की चक्की में।।
बस अपने ख्यालों को महीन करने के लिए।।

अकसर रुक जाता हूँ इन सरहदों को देखकर।।
परिन्दों की तरह बेख़ौफ़ उड़ना हमको नहीँ आया।।

आँखों से पढ़लो दिल की गहराईयों के राज।।
मेरी कलम अकसर हकीकत बयाँ नहीँ करती।।

अच्छी तरह से वाकिफ हूँ मैं कलम के हुनर से।।
मेरे दर्दों पर अकसर वाह वाह करते हैं लोग।।

कुछ फीका पड़ गया है मेरी कलम का वजूद।।
अब पहले के जैसे खयालात नहीँ आते।।

असल मंज़िल तोह आखिर मौत ही है।।
ना जाने क्यों बेहक जाता हूँ ज़िन्दगी हर बार देख कर तुझको।।

किसान

वोह बारिशों की दुआएं।।
वोह धूप में कड़ी मेहनत।।
वोह जाग के काटी रातें।।
वोह छत से टपकती बरसातें।।
फिर भी खुदा के रंगों में रंग जाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह सूखे का खौफ।।
वोह कोहरे की मार।।
वोह बाढ़ के आने का डर।।
सब सहकर भी पसीना बहाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह पैसे के लाले।।
वोह मंडी की लंबी लाइने।।
वोह मोल ना मिलने का दर्द।।
फिर भी घर की जरूरतों के लिए खुद को भूल जाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह उजड़े हुए खेत।।
वोह सूखी उड़ती रेत।।
दिनों में ही हरे भरे से वीरान हो जाना।।
जो किस्मतों में था मिल गया ये खुद को समझाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

वोह बैंकों की किश्तें।।
मुश्किलों में टूटते रिश्ते।।
मझबूरियों में सबकुछ यूँ ही छोड़ के मर जाना आसान तोह नहीँ।।
आखिर किसान हो जाना आसान तोह नहीँ।।

शायर 2

इतने ना नज़र आएंगे तुमको मेरे ये ऐब।।
कभी खुद की बातों को भी तोड़ मरोड़कर तोह देखो।।

खत्म हो जाएं दुनिया की तमाम ये नफ़रतें।।
कभी खुदको अच्छाई की तरफ मोड़कर तोह देखो।।

एक निबाला भी व्यर्थ ना फेंकोगे तुम यूँ।।
कभी खुदको उस किसान की तरह तोड़कर तोह देखो।।

गरीबी का एहसास हो ही जाएगा।।
एक वक़्त के खाने लिए कभी दूसरों के सामने हाथ जोड़कर तोह देखो।।

खूब भायेगी फिर तुमको मखमलों की नींद।।
कभी एक रात फुटपाथ पर ठंड की चादर ओढ़ कर तोह देखो।।

भूल जाओगे एक पैसा भी बेइमानी का लेना।।
कभी अपने अंदर के इंसान को जखजोड़कर तोह देखो।।

अच्छे बुरे का एहसास खुद ही होने लगेगा।।
कभी नोटों और वोटों की राजनीती छोड़कर तोह देखो।।

एक दिन भारत समृद्ध हो ही जायेगा।।
तुम भी ईमानदारी की राह पर दौड़कर तोह देखो।।

मांग बैठा

प्यासा ना कोई रहे तोह कुछ बूंद पानी मांग बैठा।।
मर के भी ना मिटे वोह जिंदगानी मांग बैठा।।
देश की खातिर बहे वोह रक्त मांग बैठा।।
अपनों में जो गुज़रे वोह वक़्त मांग बैठा।।
जो देश से गरीबी मिटाए वोह खजाना मांग बैठा।।
भूखा ना कोई सोये तोह सबके लिये खाना मांग बैठा।।
गया था खुदा के घर मांगने को मैं।।
बेघर के लिए घर माँग बैठा, खुशियों भरी डगर मांग बैठा।।

मैं और मेरी कलम 3

वक़्त बेवक़्त लिखवाता था अपने मन की बातों को।।
अब रोज रोज की परेशानी ही खत्म लो उस शायर को मार दिया मैंने।।

इश्क के किस्से तोह अक्सर अधूरे ही रहते हैं।।
सिर्फ मुक्कमल हो जाने का नाम ही प्यार नहीँ होता।।

ऐ खुशियों कभी वक़्त मिले तोह मुझसे भी समझौता कर लो।।

शायद कोई टुकड़ा रोटी का इसमें भी फेंका हो,,
इसी आस में सब कचरे केे डिब्बे बिखेर दिए उस गरीब ने।।

मैं भी लिखता कभी जज्बात-ए-इश्क।।
पर क्या करूँ दिल से पहले हालातों की कलम चल जाती है।।

जब पेट की भूख पानी पर भारी पड़ने लगी।।
वोह गरीब हाथ फैला बैठा।।

कभी करूँगा ब्यान इश्क के जज्बातों को।।
अभी लिख लेने दो दुनिया के हालातों को।।

मैं और मेरी कलम 2

आये हो इन गलियों में तोह थोड़ा सम्भल कर रहना।।
ये लफ़्ज़ों के लहजे में फ़ँसा लेते हैं जनाब।।
ये शायरों की महफ़िल है,
ये शब्दों में ही सारा जहां उलझा लेते हैं जनाब।।

तोड़ दिया आज मैंने वोह आशियाना।।
अब जब वोह परिंदा किसी और पेड़ पर जा बैठा तोह इंतज़ार किसका करूँ।।

तेरा नाम सुनते ही मेरे अल्फ़ाज़ों का उलझ जाना।।
बता ये इश्क़ नहीँ तोह और क्या है।।

वोह क्या जानता गुलाबों की महक।।
गरीब की चाहत तोह बस रोटी है जनाब।।

कभी तोह समझो उस कलम का दर्द।।
जिन शब्दों को पढ़कर तुम रो देते हो,
वोह खुद को मिटाकर लिखता है उन्हें।।

चाह नहीँ सुर्ख़ियों में आने की।।
किसी के काम आ जाएं इतना बहुत है।।

अपनी बहन को किसी ने कुछ कहा तोह उस से सहा ना गया।।
वोह जो दूसरों पर की हुयी टिप्पणी पर हंसता बहुत था।।

छोड़ क्या उम्मीद रखनी किसी से हमदर्दी की ऐ दोस्त।
लोग बेजुबानों को मार देते हैं एक वक़्त के खाने की खातिर।

कभी पलट कर देखो कोई पुरानी किताब।।
शायद किसी पन्ने में लिपटा मेरा नाम भी मिले।।

हर लफ्ज़ में दर्द छलकता है जनाब के।।
और कहते हैं कि इश्क़ था ही नहीँ।।

क्या समझेगा जमाना मेरे लफ़्ज़ों को ऐ दोस्त।
जब वोह ही नही समझा जिसकी खातिर लिखता हूँ मैं।।

मैं और मेरी कलम

दिलों को लुभाने का हुनर नहीँ जानता जनाब।।
कलम उठाकर हकीकत लिख देता हूँ अकसर।।

यहाँ दिनों के हिसाब से याद आता है खुदा।।
कौन कहता है मेरे देश में वेदभाव नहीँ होता।।

यकीन मानिए अब ये कलम नहीँ चलती।।
शब्दों का बोझ बढ़ने लगा हो जैसे।।

अल्फ़ाज़ों में बयां करदूँ मैं दुनिया के हालात।।
बता इस महफ़िल को चुप करायेगा कौन।।

ताउम्र बनाता रहा वोह घर लोगों के।।
बस खुद की एक छत बनाने की चाह में।।

#मजदूर_की_चाहत।।

ना जाने ये शायर इतना दर्द लाते कहाँ से हैं।।
हमसे तोह ना लिखा जाता एक लफ्ज़ भी गम-ए-ज़िन्दगी।।

यूँ तोह मुझे आदत नहीँ कुछ लिखने की।।
बस जब भी सोचता हूँ तुमको तोह कलम चलने लगती है।।

मझबूरियों के किस्से अब कैसे बयां करूँ।।
माँ के हाथ का खाना छोड़ कर आया हूँ ज़िन्दगी बसर करने।।