Friday, August 19, 2016

शायरी 3

कमाल के हैं इंसान यहाँ दुनिया में।।
जिस पेड़ की छाँव में बैठ जाता था धूप में थक कर।।
उसी पेड़ को आज जलाता है तपने के लिए।।

मुझको आज भी वोही पसन्द है।।
बस उसका ही नज़रिया बदल गया।।

वक़्त के साथ हालात तोह बदल गए।।
एक मैं नहीँ बदला एक मेरी पसन्द नहीँ बदली।।

यूँ ना सताया कर तू बात बात पर ऐ ज़िन्दगी।।
मैं जो रूठा तोह फिर ना मानूँगा कभी।।

टूट जाना तोह मुक्कदर था उस शाख का।।
आँधियाँ तोह महज एक जरिया बन गयीं।।

छोड़ क्या बात करनी इंसानियत की ऐ दोस्त।।
यहाँ मजहबों के हिसाब से नज़रिये बदल जाते हैं।।

पतझड़ों में तोह आखिर टूटना ही था।।
जो आंधियों में बिखरा तोह बुरा क्यों मानू।।

अक्सर टूट जाते हैं वोह लोग।।
जो दूसरों को बिखरने नहीँ देते।।

उम्मीद है नई रुत आएगी बहारों के साथ।।
वैसे तोह समा ये भी हसीन है।।

हमेशा तोह नहीँ रहते बगानों में फूल।।
जो पतझड़ आये तोह साथ चलना मेरे।।

घटा बनकर कभी तोह छाओ रे बदरा।।
कहीं से उम्मीद कोई जगाओ रे बदरा।।
पूरे जहाँ की नफ़रतें मिट जाएं जिस से,
प्यार की ऐसी बूंदें बरसाओ रे बदरा।।

शायद कबूल तोह हो जाती मेरी भी दुआएं।।
बस टूटते तारों को देख कर कुछ माँगा ही ना गया।।

बेहक जाता हूँ ज़िन्दगी की राहों में बार बार।।
उम्र बीत गयी पर जीने के सलीके नहीँ आये।।

दिलों से पेहचान हो सबकी तब बात बने।।
रंग तोह अक्सर बदल लेते हैं लोग।।

अपना बनाने में उम्र लग जाती है।।
बेगाना तोह लोग पलों में कर जाते हैं।।

मैं रेगिस्तान की धूल की तरह तरसता ही रह गया।।
वोह घटा बनकर आया और गरज कर निकल गया।।

शायद वोह रूठता ना मुझसे।।
जो मैं अपनी नज़रों में थोड़ा सा गिर गया होता।।

पैमाने ज़िन्दगी के एक से रखे हैं सबके लिए।।
दोस्त हो मेरे तोह आम क्या ख़ास क्या।।

एक बार जो आ जाएं रिश्तों में दरारें।।
फिर लाख मरहम लगा लो वोह बात नहीँ बनती।।

Saturday, August 13, 2016

सलीके ज़िन्दगी के

अपने दर्द को छिपाना सीख लिया है मैंने।।
बेवजह मुस्कुराना भी सीख लिया है मैंने।।
वक़्त के सांचे में पिघलना सीख गया हूँ।।
मुश्किल इन राहों पर चलना सीख गया हूँ।।

सुख नहीँ रहे तोह गम भी गुज़र जाएंगे।।
ये पल रोकर काट लेता हूँ फिर तोह तमाम उम्र मुस्कुरायेंगे।।
ज़िन्दगी की उलझनों में खुद को सुलझाना सीख लिया है मैंने।।
कोई समझे ना समझे खुद को समझाना सीख लिया है मैंने।।

अपनों से धोखे खाकर सम्भलना सीख गया हूँ।।
फिसलने का कोई खौफ नहीँ है चलना सीख गया हूँ।।
दुनियादारी के बोझ को उठाना सीख गया हूँ।।
रूठ जाए जो कोई मुझसे तोह मनाना सीख गया हूँ।।

दूसरों को तोड़कर खुदको जोड़ना नहीँ सीखा।।
बुरे हालातों में भी मुंह मोड़ना नहीँ सीखा।।
दोस्ती में कभी फरेब करना नहीँ सीखा।।
एक बार जो डट गया तोह डरना नहीँ सीखा।।

किसी की कमजोरी पर हंसना नहीँ सीखा।।
लाचारों और मजबूरों को डसना नहीँ सीखा।।
इनसानियत से पहले धर्म कभी आते ही नहीँ।।
सोच पर मर जाता हूँ जनाब चेहरे कभी लुभाते ही नहीँ।।

गिरगिट की तरह रंग बदलना नहीँ आया।।
पैसों के लिए रिश्तों को कुचलना नहीँ आया
कितना भी मझबूर हो जाऊं रिश्वतखोरी नहीँ करता।।
भूखा भी सो लेता हूँ पर कभी चोरी नहीँ करता।।

Wednesday, August 10, 2016

शायरी 2

तेरे अस्तित्व पर अक्सर मुझे शक होता है ऐ खुदा।।
जब भी किसी गरीब को भूख से मरते देखता हूँ।।😟

मुझे दफनाने से पहले मेरा दिल निकाल लेना।।
बरसों से इसमें बसता है कोई।।

पूरी तोह हो जाती शायद मेरी भी दुआएं।।।
पर उस तारे को टूटता देख कुछ माँगता भी तोह कैसे।।

तमाम उम्र जोड़ता रहा जो दूसरों को।।
किसी ने सहारा भी ना दिया जब वोह खुद बिखरा।।

हर रोज आकर छंट जाते हैं फिर।।
तेवर बादलों के भी आजकल सरकार जैसे हैं।।

मैं अभी तक ठीक से सिमटा भी नहीँ था।।।
और वोह फिर से आ गए हवाओं का झोंका बनकर।।।

ठिठुरा तोह बहुत था वोह उस बारिश वाली रात में।।
पर उसकी जमीन प्यासी और बच्चे भूखे थे।।😎

कितनी मुश्किलों से तिनका तिनका करके बनाया था उसने अपना आशियाना।।
उस हवा के झोंके ने पल भर में सब तवाह कर दिया।।

अब मेरी कलम भी मेरा साथ नहीँ देती।।
वोह जमाना और था जब मैं भी महफ़िलों को रुलाया करता था।।

वोह देश की खातिर लड़ते लड़ते भी आतंकवादी कहलाया।।
और लोग पलों में टोपी लगाकर ईमानदार हो गए।।😎😎

जी भर कर दीदार करले जब तक मैं हूँ।।
मुसाफिर हूँ ज़िन्दगी का ना जाने कल रहूँ ना रहूँ।।

कब तक रोकेंगे नीर को ये मिट्टी के बाँध।।
इक दिन तोह सैलाब आएगा जरूर।।

जरूरी नहीँ हर राह मन्ज़िल तक पहुंचे।।
कुछ किस्से अधूरे ही रहते हैं।।😑😑😑

ये कागजों की दुनिया है मैडम।।
यहाँ तुजुर्बे कौन देखता है।।

भूखे रहने से जो दुआएं कबूल होती।।
तोह शायद कोई रोटी की तलाश ना करता।।

हालात ज़िन्दगी के

चलते चलते सोचता हूँ लिखूं कुछ हालात ज़िन्दगी के।।
कुछ तेरे कुछ मेरे कुछ खयालात ज़िन्दगी के।।
हसरतें दिल में लाखों बसी हैं मेरे।।
बोलूँ जो मैं तोह कोई सुनता नहीँ।।
खाबों ख्यालों में मुझे कोई बुनता नहीँ।।
ना जाने कहाँ कहाँ उलझते हैं ये खाब ज़िन्दगी के।।
कुछ तेरे कुछ मेरे कुछ खयालात ज़िन्दगी के।।

रुकूँ तोह नज़र आते हैं काफिले ही काफिले मुझको।।
चलूं तोह संग मेरे कोई चलता नहीँ।।
खुद में ही उलझ गया हूँ कुछ इस तरह से।।
लाख कोशिशें करके भी सुलझता ही नहीँ।।
कभी कबार कलम से ही निकलते हैं अब ये जज़्बात ज़िन्दगी के।।
कुछ तेरे कुछ मेरे कुछ खयालात ज़िन्दगी के।।

बिकने को घूमता है यहाँ हर इंसान दुनिया का।।
कैसा ज़मीर है ये जो टिकता ही नहीँ।।
लड़खड़ा जाते हैं सभी यहाँ दुनिया की राह में।।
कोई बिरला ही शख्स हो जो फिसलता ही नहीँ।।
दुनिया में अच्छाइयों को कोई अपनाता भी तोह नहीँ।।
किस किस को दूँ मैं ये पैगाम ज़िन्दगी के।।
इक दिन मेरे साथ ही मर जायेंगे ये अरमान ज़िन्दगी के।।

इज़्ज़तों वाला श्रृंगार उतारकर जीते हैं लोग।।
इंसानियत और ज़मीर मारकर जीते हैं लोग।।
पैसे के लिए खुद को बेचकर।।
शराफतोँ वाले लिबास खरीदते हैं लोग।।
दिखावे के सँस्कारी अनेकों फिरते हैं।।
किस किस को सुनाऊं मैं हालात ज़िन्दगी के।।
कुछ तेरे कुछ मेरे कुछ खयालात ज़िन्दगी के।।

दहेज़ों और रिश्वतों के रिवाज़ चल रहे हैं।।
दिलों में नफरतों के साथ बच्चे पल रहे हैं।।
कौन सीखाता है अब जीने के सलीके।।
दुनिया में बदमाशियों के दौर चल रहे हैं।।
प्यार महोबत अब किताबों में ही रह गयी है।।
कैसे ब्यान करूँ ये संवाद ज़िन्दगी के।।
कुछ तेरे कुछ मेरे कुछ खयालात ज़िन्दगी के।।